श्री जयराम अन्नक्षेत्र ट्रस्ट, ऋषिकेश
श्री जयराम अन्नक्षेत्र की स्थापना परमपूज्य तपस्वी, वीतरागी,सिद्धपुरूष 108 ब्रहमचारी श्री जयराम जी महाराज द्वारा 1889 में दण्डीस्वामियों, ब्रहमचारियों तथा यात्रियों की सेवा हेतु की गयी थी। पतित पावनी भागीरथी के तट पर ऋषिकेश में स्थित यह अन्नक्षेत्र गंगा की भाति अजस्त्र बहती धारा के समान जनमानस की अविरल सेवा करते हुए अपने 107 में वर्ष में प्रवेश कर रहा है।
प्रम श्रद्धेय ब्रहमचारी श्री जयराम जी महाराज का जन्म वर्तमान हरियाणा प्रान्त के जिला रोहतक, गांव छोछी में एक साधारण कृषक गौड़ ब्राहमण कुल में हुआ था। बाल्यावस्था से आपको गौओं से बहुत लगाव था। आप गौओं की दुर्दशा सहन न कर पाते थे। फलस्वरूप आपने गांव बेरी में एक गोशाला का निर्माण कराया, जो आज भी इनके नाम से प्रसिद्ध व सुस्थिर हैं इसी प्रकार गांव जाखोली, जिला सोनीपत में भी श्री जयराम गौशाला’ गोसेवा में कार्यरत है।
बह्मचारी श्री जयराम जी महाराज ने धर्म स्थापना तथा सिद्धि प्राप्ति के लिए अति कठिन तपस्याएं की। ज्येष्ठ मास की भीषण गर्मी में पंचाग्नि तपस्या, शीतकाल में नाभि तकजल में रहकर तथा वर्षा ऋतु में विल्व वृक्ष के नीचे समाधिस्थ होकर निरन्तर 12 वर्ष तक एक करोड़ गायत्री जप जैसे कठोर अनुष्ठानों को आपने अपने जीवन में पूर्ण किया। आपने अति विकट चन्द्रायण व्रत किया, जिससे प्रसत्र होकर माता गायत्री ने साक्षात् प्रकट होकर आपको वाक्-सिद्धि का वर प्रदान किया। आप आजीवन नैष्ठिक ब्रहमचारी रहे।
चमत्कार :
गांव बेरी के सभी कुओं का जल खारा था, परन्तु एक बार जिस कुएं का जल महाराज जी ने स्वयं मांग कर पीया था, उस कुएं का जल मीठा हो गया। यह कुआं आज भी ब्रहमचारी जयराम का कुआं’ के नाम से प्रसिद्ध है।
एक बार वुलकाना गांव में भीषण आग लग गयी। ब्रहमचारी जी ने मंत्रजल से उसे बुझा दिया। उनकी प्रसिद्धि देखकर किसी नास्तिक ने चुनौती दी कि मंत्र द्वारा यदि महाराज जी अग्नि प्रज्वलित करें तो वह जाने। महाराज जी ने मंत्रोच्चारण किया और धूनी से अग्नि की लपटें निकलने लगीं। आज भी उस धूने की राख से सभी रोग व कलह शान्त हो जाते है।
ब्रहमचारी श्री जयराम जी महाराज ने कई देश मेले (जन सम्मेलन) किये। इन मेलों में लडडुओं तथा मालपूओं के अखण्ड समष्टि भंडारे किये जाते थे। एक बार भंडार में घी कम हो जाने पर महाराज जी ने गंगा जल भर लाने को कहा तथा उसी में मालपू तलने का आदेष दिया। आश्चर्य,गंगाजल में पुए तलने का काम सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात उतनी ही मात्रा में घी गंगा मैय्या को समर्पित कर दिया।
अन्नक्षेत्र की स्थापना :
जनमानस की सेवा करते सन् 1881 में ब्रहचारी जी ऋषिकेश आये। यहां कोई ऐसा स्थान नहीं था, जहां ब्रहमचारियों व दण्डीस्वामियों को सादर भिक्षा मिल सके। वे क्षुब्ध हो उठे तथा व्रत लिया कि, जब तक इस स्थान पर इनके भोजन की उचित व्यवस्था नहीं होती, तब तक अन्न ग्रहण न करूंगा। ओर भूखे रह कर गंगा तट पर माता अपमूर्ण की आराधना करने लगे। अन्नपूर्णा के चमत्कार से भक्तजनों ने अन्नक्षेत्र खोलने का आश्रवासन दिया तथाउनके सहयोग से दण्डीस्वामी ब्रळमचारियों के लिए अन्नक्षेत्र की स्थापना की गयी। ब्रहमचारी जी के मधुर व्यवहार, सन्त स्वभाव तथा तपस्या से आकृष्ट हो अनेक भक्त उस घास-फूस के छप्पर में बने साधनहीन आश्रम में आने लगे। ब्रहमचारी जी के आशीर्वाद से उनके कार्य सिद्ध हो जाते । यहां बांगर क्षेत्र के व्यक्ति अधिक आते थे तथा सेवा करते थे इसलिए इसे बांगरू बाड़ा’ भी कहा जाता था।
श्री ब्रहमाचारी जयराम जी महाराज ने यात्री सेवा का प्रण लिया। हरिद्वार तथा प्रयाग में कुम्भ के अवसर पर तथा कुरूक्षेत्र में फल्गु आदि मेलों में यात्रियों की आवास-व्यवस्था तथा अन्न-वितरण द्वारा जनता-जनार्दन की सेवा करने लगे। इसी प्रकार जनमानस की सेवा करते हुए अपने योग्य शिष्य नैष्ठिक ब्रहमचारी श्री कूटस्थ जी को संस्था का भार सौंपकर माघसुदी एकादशी, 2 विक्रमी सम्वत् 1960 को आप ब्रहमलीन हो गये। आपका अन्तिम वाक्य था, ब्रहमचर्य का पालन, गयात्री का जप तथा जनसेवा के व्रत से अन्नपूर्णा की कृपा सदा बनी रहेगी।’’
शिष्य परम्परा :
ब्रहमचारी श्री जयराम जी महाराज के तीन परम शिष्य थे। प्रथम ब्रहमचारी श्री कूटस्थ जी, जो अधिकतर समाधिस्थ रहकर कठिन तपस्या में लीन रहते। आपने संस्था के नियम तथा व्यवस्था की परम्परा को निभाये रखा।
दूसरे शिष्य ब्रहमचारी श्री शादीराम जी को क्योंकि भवन निर्माण मं विशेष रूचि थी इसलिए यात्रियों की सुख-सुविधा के लिए इन्होंने कई भवनों का निर्माण आरंभ किया।
तीसरे शिष्य ब्रहमचारी हरिपुष्प् जी महाराज ने दिल्ली में, किलोकड़ी गांव में, श्री जयराम ब्रहमचर्य आश्रम ट्रस्ट’ की स्थापना की, जो हरिनगर आश्रम के नाम से प्रसिद्ध हैं आश्रम चौक’ का नाम भी इसी आश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ है।
ब्रहमचारी श्री शादीराम जी के शिष्य श्री गंगास्वरूप जी ब्रहमचारी वेदान्त तथा व्याकरण के प्रसिद्ध विद्धान थे इन्होंने गांव-गांव घूमकर संस्कृत एवं धर्म का प्रचार करते हुए कई मन्दिरों की स्थापना करायी शराब न पीने तथा अमावस्या के दिन हल न जोतने की प्रतिज्ञाएं दिलवायी। आज भी हरियाणा में अमावस्या के दिन हल नहीं जोता जाता, यहां तक कि झोटा-बुग्गी व ऊंट-रेहड़ी भी नहीं चलायी जाती।
वर्तमान संचालक संकल्पसिद्ध ब्रहमचारी देवेन्द्र स्वरूप जी तथा छोटे गुरूभाई ब्रहमचारी नारायाण स्वरूप जी ने माघ शुक्ल बसंत पंचमी, सन् 1942 कुम्भ मेला प्रयाग मं परमपूज्य श्रद्धेय ब्रहमचारी श्री गंगा स्वरूप जी से विधिवत् दीक्षा प्राप्त की । गुरू जी के सात्रिध्य तथा सन्मार्ग दर्शन को अभी छ: माह भी नहीं हुएउ थे कि इन शिष्यों को बाल्यावस्था में ही जनसेवा के गहन वन में छोड़कर श्री गंगास्वरूप जी ब्रहमलीन हो गये। ब्रहमचारी देवेन्द्र स्वरूप जी ने अपने सत्संकल्प, अथक परिश्रम, दिव्य स्मृति, शान्त व मधुर स्वभाव से सतत साधना करते हुए सभी संस्थाओं को चार चांद लगा दिया।